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स्टालिन, रेवन्त, सिद्धारमैया के बाद अब नायडू भी मातृभाषा के पक्ष में बोले, हर साहित्यकार, कलाकार का सवाल, राजस्थानी की बात क्यों नहीं

अभिषेक आचार्य

RNE Special

दक्षिण के राज्यों में इन दिनों मातृभाषा का मुद्दा सबसे ज्यादा गर्माया हुआ है। दक्षिण अपनी भाषा व अपनी संस्कृति को लेकर आरम्भ से ही सहिष्णु रहा है। वहां तो अनेक राजनीतिक दलों का गठन ही भाषा को आधार में रखकर हुआ है और वे दल लगातार सत्ता में भी रहे हैं। उनकी राजनीति ही हिंदी के विरोध व अपनी भाषा के समर्थन पर टिकी हुई थी, है और आगे भी रहेगी।जब जब कोई चुनाव आता है तो भाषा की यह लड़ाई खड़ी हो जाती है। वैसे भाषा उनके लिए केवल राजनीति का विषय नहीं है, इससे उन्होंने अपनी व्यक्तिगत अस्मिता भी जोड़ रखी है। भाषा के लिए वे कुछ भी करने को तैयार रहते हैं। भाषा को लेकर उग्र आंदोलन केवल दक्षिण में ही ज्यादा हुए हैं।

तमिलनाडु अभी भी हिंदी थोंपने के विरोध में केंद्र के सामने अड़ा हुआ है। इस काम के लिए मिलने वाली आर्थिक सहायता को भी उसने ठुकरा दिया है। वहां के मुख्यमंत्री स्टालिन तो खुलकर अपनी भाषा के पक्ष में और हिंदी के विरोध में बयान दे रहे हैं। तमिलनाडु के द्रमुक नेताओं का खुला आरोप है कि हिंदी जहां जहां जाती है सबसे पहले वहां की भाषा को खा जाती है। राजस्थानी, भोजपुरी, भुटी, छत्तीसगढ़ी आदि इसके उदाहरण है। उनके बाद तेलंगाना के सीएम रेवन्त रेड्डी ने कहा कि हमें हमारी भाषा की कीमत पर कोई भी भाषा स्वीकार नहीं। हम हिंदी का विरोध नहीं करते, मगर अपनी भाषा को पहले नम्बर पर रखते हैं। ऐसी ही बात कुछ समय पहले कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया व उप मुख्यमंत्री डी के शिवकुमार भी बोल चुके हैं। महाराष्ट्र व कर्नाटक के मध्य तो बस के कंडक्टर के भाषा न बोलने पर झगड़े चले हैं और बस सेवा बंद हो गई।मातृभाषा को लेकर ताजा बयान आंध्रा के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू का सामने आया है। ये बयान उन्होंने अधिकृत रूप से विधानसभा में दिया है। उन्होंने कहा कि तेलुगु को सीखना जरूरी है, क्योंकि मातृभाषा को बोलने वाले ही दुनिया में सबसे अधिक सफल रहे हैं। उनका कहना था कि तेलुगु को बोलते हुए भले ही हम आजीविका के लिए कोई भी भाषा सीखें, एतराज नहीं। उन्होंने भी अपनी मातृभाषा को इतनी प्राथमिकता दी।

राजस्थानी की बात क्यों नहीं ?

राजस्थानी 12 करोड़ से अधिक लोगों की मातृभाषा है। हम राजनीतिक रूप से भी सक्षम हैं। उसके बाद भी तमिलनाडु, कर्नाटक, तेलंगाना, आंध्रा की तरह हमारे नेता अपनी मातृभाषा के लिए इस तरह की बातें क्यों नहीं बोलते। क्या उनको अपनी मां बोली से शर्म आती है। अपनी मां पर तो हरेक को गर्व होता है, नाजोगे लोग ही शर्म महसूस करते हैं।

राज्य के 25 लोकसभा सदस्य, 10 राज्यसभा सदस्य व 200 विधायक जब अपने चुनाव के लिए वोट मांगने जाते हैं तब इसी मां बोली राजस्थानी में बात करते हैं, फिर चुनाव जीतने के बाद अपनी मां को भूल क्यों जाते हैं। उसकी बात क्यों नहीं करते हैं। किससे डरते हैं। मां तो निर्भय होने का नाम है, उससे दूर क्यों भागते हैं।दुःख तो इस बात का है कि ये नेता या माननीय जीतने के बाद अपनी मां बोली की बात करना ही नहीं, मां बोली को बोलना भी भूल जाते हैं। एक दो नेता जरूर हैं, जो मां बोली बोलते हैं। उसकी मान्यता की बात करते हैं।

इस समय देश की संसद के दोनों सदनों के मुखिया राजस्थानी है। जहां से देश का हर कानून बनता है। लोकसभा के अध्यक्ष ओम बिरला व मगमहिम उप राष्ट्रपति व राज्यसभा के सभापति जगदीप धनकड़ भी राजस्थान के है। फिर भी हमारी मां बोली राजस्थानी संवैधानिक मान्यता को तरस रही है। दूसरी राजभाषा जैसी उपलब्धि भी हासिल नहीं कर पा रही है।

हे माननीयों!! कुछ तो स्टालिन, सिद्धारमैया, रेवन्त रेड्डी, चंद्रबाबू नायडू आदि से सीखो। अपनी मां बोली की ताकत पहचानों। बोलो तो सही। हर राजस्थानी का आपसे यह सवाल है, जवाब तो दो।