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चिंता के “बादल” : कविता के अंतिम संस्कार की खबर.. पुष्टि नहीं हुई!

Sunday Satire : चिन्ताएँ आधुनिक लेखक की : डॉ. मंगत बादल

आधुनिक लेखक की सबसे बड़ी और अहम चिन्ता तो यही है कि आज साहित्य और स्वयं साहित्यकार का अस्तित्व खतरे में है। दुनिया के किसी कोने से हल्की-सी आवाज आती है- कविता मर चुकी है, उसका अन्तिम संस्कार कर दिया गया है। यह सुनते ही दल के दल लेखक एकत्र होकर चिन्ताएँ प्रकट करने लगते हैं। इस समय लेखकों के दो दल बन जाते हैं। एक दल कहता है, कविता का मरना शुभ लक्षण नहीं है। कविता के मरने का मतलब है कि अब आदमी भी नहीं बचेगा।

इसके सम्बन्ध में खूब लम्बी-चौड़ी बहसें होती हैं। तर्क प्रस्तुत किये जाते हैं और कविता के पुनर्जन्म की घोषणाएँ होने लगती हैं जबकि ठीक उसी समय दूसरा दल तर्क प्रस्तुत करता है कि कविता कभी मर ही नहीं सकती। यह कुछ ऐसे लोगों का षड्यंत्र है जो इस तरह के शिगूफे छोड़कर हमें कमजोर कर देना चाहते हैं। यह सीधा सांस्कृतिक आक्रमण है। इसका कड़ा मुकाबला करना चाहिए। यह दीगर बात है कि ठीक इसी समय कवियों का एक दल धड़ाधड़ कविताएँ लिखकर छपवाता जाता है।

अपनी अस्मिता पर मंडरा रहे खतरे से भी आज का लेखक कम चिन्तित नहीं है। उसे लगता है कि वैज्ञानिक साधन और तकनीकी उन्नति मानवीय संवेदना को समाप्त कर रहे हैं। भौतिक प्रगति मनवीय संबंधों की सबसे बड़ी शत्रु है। इन सब बातों को जानते हुए भी आधुनिक लेखक अधिक से अधिक भौतिक साधन जुटाने की चिन्ता से ग्रसित रहता है। उसकी दृष्टि में यदि वह ऐसा न करे तो लोग उसे हेय दृष्टि से देखेंगे। वह स्मझता है कि अपने अस्तित्व के प्रति अत्यधिक चेतना उसे सब खतरों से बचा लेगी।

नित्य प्रति क्षीण से क्षीणतर होती हुई मनवीय संवेदना को कैसे बचाया जाए ? इस दिशा में स्वस्थ चिन्तन करने के लिए उसे सोमरस नामक एक टॉनिक का सेवन करते भी देखा गया है। नित्य नवीन प्रेरणा प्राप्त करने के लिए उसे एक अदद प्रेमिका प्राप्त करने की चिन्ता भी हरदम सताती है। प्रेरणा प्राप्त करने के मामले में प्रत्येक लेखक अतिरिक्त रूप से सजग है। साथ ही व्ह इस बात की भी बराबर चेष्टा करता है कि उस प्रेरणा के विषय में उसकी बीवी को पता न चल जाए। प्रेरणा का यह स्रोत बीवी नामक जीव के सम्पर्क में आते ही तत्काल सूख जाता है।

व्यवस्था को लेकर भी लेखकों में बड़ी चिन्ता व्याप्त है। उनकी मान्यता है कि प्रत्येक व्यवस्था व्यकिा का शोषण और अपना पोषण करती है, इसलिये पे प्यपत्त्था को पानी पी-पीकर कोसते हैं, उसमें आमूल-चूल परिवर्तन का आह्वान करते हैं किन्तु अवसर मिलते ही या तो उसमें घुस जाते हैं या लाभान्वित होकर भौतिक जीवन सफल बनाते हैं। वैसे प्रत्येक लेखक की सफलता इस बात में निहित है कि वह व्यवस्था का विरोध भी करता रहे और लाभों से भी वंचेत न रहे। व्यवस्था के विरोध में लिखना और वक्तव्य देना लेखको का प्रिय रागल है। कुछ लेखक तो इसलिए नौकरी नहीं करते (उनके स्वयं के कथानानुसार) कि इससे लेखक की आत्मा मर जाती है तथा स्वतन्त्रता छिन जाती है। यह अलग बात है कि कई बार उनके घिनौने करतब देखकर चारित्रिक पतन की पराकाष्ठा दिखलाई पड़ती है।

साहित्यक पुरस्कारों को लेकर भी साहित्य जगत में एक विशेष प्रकार की चिन्ता देखी जाती है। इस विषय पर लेखकों में बड़ा मत वैभिन्य है। एक वर्ग तो कहता है कि पुरस्कार प्राप्त करने से लेखक की समाज में पहचान बनती है। उसे प्रेरणा और प्रोत्साहन मिलता है जिससे वह स्रजन के क्षेत्र में और अधिक दत्त-चित्त हो जाता है। (ऐसे प्रवचन पुरस्कार प्राप्त महान् विभूतिय करती हैं।) दूसरी ओर ऐसे लेखक हैं, (जो महानुभाव जोड़-तोड़ के बाद भी पुरस्कार का जुगाड़ नहीं बिठा सके) जिनका कहना है कि पुरस्कार प्राप्त कर लेखक निकम्मा, भीरू और सत्ता का भोंपू बन जाता है। उनके अनुसार सत्ता प्रकारान्तर से लेखक रूपी पक्षियों को पुरस्कार रूपी चुग्गा डालकर अपने जाल में फांस लेती है। उच्चकोटि के लेखक को कभी भी पुरस्कार नहीं लेना चाहिए। सूर, तुलसी और मीरा को कौन सा पुरस्कार मिला था ? उनकी महानता पर कौन अंगुली उठा सकता है ?

आजकल लोग साहित्य नहीं पढ़ते। लेखकों के लिए यह बात बड़ी तकलीफ देह है। यह अलग बात है कि वे ऐसा कुछ लेखते ही नहीं कि जिसे पढ़ने के लिए पाठक वर्ग उत्सुक हो। प्रत्येक लेखक का यही प्रयत्न रहता है कि लोग उसकी रचनाएँ अधिक से अधिक पढ़ें किन्तु वह किसी को नहीं पढ़ता। श्रोताओं और पाटकों की चिन्ता उसे आजीवन सताती है। अपनी रचनाओं के प्रकाशन हेतु वह सदैव प्रयत्नरत रहता है। लेखक की एक जान को हजार लफड़े हैं। प्रकाशक कभी उसकी पाण्डुलिपि दबा लेता है कभी रॉयल्टी। सारी दुनिया के शोषण के खिलफ आवाज बुलंद करने वाला लेखक स्वयं शोषण का शिकार होता रहता है।

जिस प्रकार काजी जी शहर के अंदेसे से दुबले रहते हैं उसी प्रकार लेखकगण भी दुनिया जहान की चिन्ताओं से तो चिन्तित और पीड़ित रहते हैं किन्तु उनके खुद के घर में क्या हो रहा है, इस बात से बेखबर रहते हैं। ये कलमवीर अक्सर घरेलू मोर्चों पर असफल होकर ताउम्र अपनी बीवियों से प्रताड़ित होते रहते हैं। दुनिया भर के लेखक इसीलिए भी चिन्तित रहते हैं कि लोग उन बातों की बिल्कुल चिन्ता नहीं करते हैं जिनकी लेखक करते हैं। उन्हें यह भय सद रहता है कि कहीं वे कल्पना के आकाश से उतरकर यथार्थ के खुच्दरे धरातल पर न आ जायें। जीवन को चित्रित करने वाले जीवन की कड़वी सच्चाइयों से उसी प्रकार सुरक्षित रहना पसन्द करते हैं जिस प्रकार शुतुरमुर्ग रेत में सिर धंसा कर। शायद यही उनकी नियति है कि चिन्त में डूबे रहें !


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